देश के चुनावी रण का गूढ़ रहस्य, कैसे हासिल हो सकती है सत्ता की चाबी ? जानिए जीत के गणित का फॉर्मूला 

देश के चुनावी रण का गूढ़ रहस्य, कैसे हासिल हो सकती है सत्ता की चाबी ? जानिए जीत के गणित का फॉर्मूला 
  • यूपी के चुनावी रण में योगी आदित्यनाथ के सामने कितने योद्धा?
News Flash INDIA:-(अमित त्यागी / निशाँक शर्मा) :
राजनीती का खेल जादुई रहस्य की तरह है । जहाँ मुद्दों पर राजनीति हमेशा भारी पड़ती रही है ।  ऐसे में किसके हाथ है उस सत्ता के बंद ताले की चाबी जिसके पीछे जनता अपना मत न्योछावर करने के लिए तैयार बैठी है । तो ऐसे में सबसे पहला सवाल यही है कि क्या योगी तोड़ पायेंगे 22 की सत्ता का तिलस्म?
राजनीति शह और मात का रहस्यमयी खेल है। बड़े बड़े महारथी इस रहस्य के भवँर में अपना राजनैतिक भविष्य समाप्त कर हाशिये पर पहुँच जाते हैं। अपनी दूरदृष्टि , कुशल रणनीति और सधे कदमो से जो इस रहस्य को हल कर लेते हैं ,वो विजेता के रूप में स्थापित होकर सत्ता सुख भोगते हैं।
राजनीति में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रायः दो मोर्चो पर संघर्ष देखने को मिलता है।प्रत्यक्ष रूप में विरोधियों के साथ और अप्रत्यक्ष रूप में तथाकथित "अपनों" के साथ ,जो साथ रहकर एक-दुसरे को निपटाने के अवसर की तलाश में रहते हैं।
  • हिंदुत्व के पोस्टर बॉय योगी और 2022 का चुनाव

 आज हम बात करेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की।उत्तर प्रदेश का चुनावी रण सज चुका है। 2022 का चुनाव निश्चित रूप से योगी की राजनीति की दिशा और दशा तय करेगा।
     निःसंदेह आज के परिदृश्य में योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व के पोस्टर बॉय हैं। कट्टर हिंदुत्ववादी छवि के मामले में विगत कुछ वर्षों में उनका ग्राफ तेजी से बढ़ा है। गोरखपुर और देश-प्रदेश की सीमाओं को लाँघ कर उनकी निरंतर बढ़ती हिंदुत्ववादी छवि का विस्तार अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी हुआ है । प्रखर हिंदुत्व के मामले में आज कोई नेता उनके आस-पास नही ठहरता। यहाँ तक कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की लाइन से उनकी लाइन बड़ी हो चुकी है । हिंदुत्व के पुरोधा के रूप में विस्तार लेती उनकी छिपी हुई राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का आभास मोदी के रहते हुए उनके समर्थकों ने "मोदी के बाद योगी" का नारा देकर करा दिया था। शायद इसी जल्दबाजी ने योगी की राह में काँटे बो दिए हैं।
  • राजनीती में संकेतों का महत्त्व
राजनीति में संकेतों का बड़ा महत्त्व है । संकेत चाहे "बॉडी लैंग्वेज" के माध्यम से दिए गए हों या अन्य माध्यम से।संकेत चर्चा का कारण बनते हैं और चर्चा जोर पकड़ जाए तो माहौल पर असर डालती है जो निश्चित रूप से परिणाम को प्रभावित करती है।ऐसा ही कुछ योगी जी के साथ हुआ है।बीते लंबे समय से विशेषकर मोदी जी के "दूत" के रूप में वरिष्ठ आईएएस अरविन्द शर्मा के वीआरएस लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के बाद से ही दिल्ली और लखनऊ के सिंघासन में तल्खियां बढ़ गयीं थी । कई मामलों में मोदी ने योगी की फजीहत करायी ।योगी का मोदी की गाड़ी के पीछे पैदल चलने वाला वीडियो वायरल होने के बाद बने माहौल में सत्ता के गलियारों से निकलकर चर्चा जनता में ऐसी फैली कि भाजपा को "डैमेज कंट्रोल" करने के लिए बाकायदा योगी के कंधे पर हाथ रखकर चलते मोदी जी के तस्वीर का व्यापक प्रचार-प्रसार कर के "ऑल इज वेल - सब चंगा सी" बताने का पुरजोर प्रयास किया गया। चुनाव आते आते भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यह जान गया कि योगी की नाराजगी और उनका हठ योग कहीं यूपी में कल्याण सिंह वाला इतिहास ना दोहरा दे।

  • विधानसभा चुनाव के बहाने हाशिये पर पहुँचाने की रणनीती
 शायद इसी लिए अमित शाह ने उन्हें मुख्यमंत्री के लिए पार्टी का चेहरा घोषित किया और विधान परिषद के सदस्य होने के बावजूद योगी को चुनाव लड़वाने की तैयारी की गयी।पहले अयोध्या और मथुरा से योगी का नाम चला मगर शायद समय रहते यह भाँप लिया गया कि अयोध्या या मथुरा से चुनाव लड़ने से योगी यूपी ही नही देश - दुनिया के आकर्षण का केंद्र बन जाएंगे और मीडिया का रात दिन का फोकस योगी के चुनाव और नाम को नयी ऊंचाइयों पर ले जाएगा। "पार्टी से बड़ा व्यक्ति" का नजारा मोदी के रूप में भाजपा देख चुकी है, ऐसे में भला खुद मोदी किसी को इतना बढ़ने का अवसर कैसे दे सकते हैं। मोदी की राजनीती को जानने वाले लोग इस बात से भली भाँती परिचित हैं कि मोदी राजनीति में अपना विकल्प पसंद नहीं करते हैं। गोरखपुर से उनकी उम्मीदवारी को इसीसे जोड़कर देखा जा रहा है।अखिलेश यादव तो इशारों में कटाक्ष करते हुए इसे उनकी गोरखपुर (मठ) वापसी बता रहे हैं ।भाजपा ने योगी को उनके घर में सीमित कर दिया है।
  • जीते तो सामान्य किन्तु हारे तो......?
 यहाँ वह चुनाव जीत भी जाते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं होगी लेकिन यदि अपने गृह क्षेत्र से मुख्यमंत्री रहते योगी चुनाव हार गये तो इसका दूरगामी असर होगा। योगी के राजनैतिक वजूद और भविष्य पर जरूर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। 
  •  गोरखपुर शहर सीट का चुनावी इतिहास
आइये हम गोरखपुर शहर सीट के माहौल और चुनावी गणित समझने की कोशिश करते हैं जहाँ से योगी चुनाव मैदान में है। गोरखपुर शहर विधानसभा सीट पर पिछले 33 सालों से भगवा का कब्‍जा है। इन 33 सालों में कुल 8 चुनाव हुए जिनमें से 7 बार बीजेपी और एक बार हिन्‍दू महासभा (योगी आदित्‍यनाथ के समर्थन से) के उम्‍मीदवार ने जीत हासिल की। वर्ष 2002 में इस सीट से राधामोहन दास अग्रवाल हिन्‍दू महासभा के बैनर तले जीते लेकिन जीतने के बाद ही वो बीजेपी में शामिल हो गए और वो तब से ही लगातार इस सीट से जीत दर्ज करते आ रहे हैं।
 
  • वर्तमान विधायक राधा मोहन दास अग्रवाल की चुप्पी
राधामोहन दास अग्रवाल भाजपा के ऐसे विधायक हैं जिनके खिलाफ एंटी इनकमबेंसी नहीं है । वे पेशे से चिकित्सक हैं और अपने सरल व्यव्हार और कार्यशैली के चलते बेहद लोकप्रिय भी हैं। समाजवादी पार्टी ने भी उनपर डोरे डालने की कोशिश की मगर वे अभी भाजपा में ही बने हुए हैं।अपना टिकट कटने से स्तब्ध हैं और चुप हैं।उनकी चुप्पी और उनके समर्थकों और शुभचिंतकों की टीस चुनाव का परिणाम बदल सकती है।
  • क्या कहते हैं जातिवार समीकरण ?
 हालांकि जातिगत जनगणना नही होने के कारण जाति आधारित वोटों की सटीक जानकारी उप्लब्ध नहीं है । जातिवार जनसंख्या पर सभी का अलग अलग आकलन है लेकिन फिर भी लोगो की बातचीत के आधार पर राधामोहन दास अग्रवाल के सजातीय वैश्य मतदाताओं की संख्या 50 हजार के करीब बताई जाती है।
  • ब्राह्मण बनाम ठाकुर का ध्रुवीकरण
इसके अलावा मुख्य मामला ब्राह्मण बनाम ठाकुर ध्रुवीकरण का है। इस सीट पर ब्रह्ममण मतदाताओं की संख्या सर्वाधिक (70 हजार से ऊपर)बताई जाती है।  सपा ने कोरोना काल में दिवंगत हुए उस क्षेत्र के बड़े भाजपाई ब्राह्मण नेता उपेंद्र शुक्ला की विधवा सुभावती शुक्ला को टिकट देकर बड़ा दांव चला है। गोरखपुर में ब्राह्मण बनाम ठाकुर ध्रुवीकरण की शुरुआत 60 के दशक में हुई थी । गोरखनाथ पीठ के तत्कालीन पीठाधीश्वर महन्त दिग्विजयनाथ व  पब्लिक फिगर एस०एन०एम त्रिपाठी के बीच गोरखपुर विश्वविद्यालय पर शुरू हुआ विवाद उनके बाद योगी के गुरु व तत्कालीन पीठाधीश्वर महन्त अवैद्यनाथ और हरिशंकर तिवारी के जमाने में ब्राह्मण बनाम ठाकुर के ध्रुवीकरण के रूप में शहर से जिले और मण्डल से बाहर समूचे पूर्वांचल में फैल गया।हरिशंकर तिवारी का "हाथा" (घर) पूर्वांचल के ब्राह्मणों की राजनीती का शक्तिकेंद्र बन गया। अब योगी आदित्यनाथ और हरिशंकर तिवारी के बेटे विनयशंकर तिवारी इस ध्रुवीकरण की धुरी बने हुए हैं। योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद तिवारी के हाथे में पुलिस के छापे का पूर्वांचल के ब्राह्मणों में दूर तक सन्देश गया। 
  • जातिवादी और ब्राह्मण विरोधी होने के आरोप
मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी ठाकुरों और ब्राह्मणों के इस ध्रुवीकरण को ख़त्म करने में पूर्णतः नाकाम रहे । इसके उलट उनपर जातिवादी राजनीती करने और ठाकुरवाद को बढ़ावा देने के साथ साथ ब्राह्मण विरोधी होने के भी खूब आरोप लगाये गए।हरिशंकर तिवारी का कुनबा अब समाजवादी हो चुका है। ऐसे में सर्वाधिक संख्या वाले ब्राह्मण मतदाताओं का रुख भी चुनाव की दशा तय करेगा।
  • यादव - मुस्लिम वोट
 सपा का परंपरागत वोटबैंक माने जाने वाले यादव मतदाताओं की वोट 30 हजार से ऊपर और मुस्लिम मतदाताओं की वोट 40 हजार से ऊपर बताई जाती हैं। इनका रुख भी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा।
  • चंद्रशेखर आजाद (रावण) की चुनौती।

 भीम आर्मी /आजाद समाज पार्टी के प्रत्याशी चंद्रशेखर आजाद (रावण) का भले ही गोरखपुर शहर में कोई बड़ा संगठनात्मक ढांचा न हो और उनका चुनाव को लोग प्रतीकात्मक मान रहे हो ,मग़र कई वर्षों के क्रन्तिकारी संघर्ष ने कई राज्यों में दलित वर्ग में उनकी विशिष्ट पहचान कायम की है।उनका क्रन्तिकारी अंदाज दलित वोटों में सेंध लगा सकता है ।दलित (एस सी)मतदाताओं की संख्या भी पचास हजार से ऊपर बताई जाती है। इससे अलग पासी समाज के भी 25 हजार से ऊपर वोट बताए जाते हैं। चंद्रशेखर बहुत नुकसान कर सकते हैं।उन्हें हल्के में लेना कहीं भारी ना पड़ जाए।
कहाँ जाएंगे निषाद वोट
सपा और निषाद मिलकर  उपचुनावों में योगी को उनके ही गढ़ में हार का स्वाद चखा चुके हैं। निषादों की राजनीती करने वाले संजय निषाद आज बीजेपी के साथ हैं।
 भगवान राम पर आपत्तिजनक बयान देने वाले भाजपा के सहयोगी दल निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद द्वारा बीते दिनों लखनऊ में रैली आयोजित की गयी थी।रैली में अमित शाह अमित शाह ने निषादों के आरक्षण के विषय में कोई आश्वासन नहीं दिया। इससे रैली में गये लोगों में नाराजगी देखी गयी थी ।निषाद समाज के भी 20 हजार से अधिक वोट बताये जाते हैं।
ठाकुर वोट - एक साथ वोट करने वाले ठाकुर और सैंथवार मतदाताओं के मिलाकर कुल वोट 40 हजार से ऊपर बताई जाती है ।
कायस्थ वोट भी कर सकते हैं खेल - इसके अलावा 45 हजार से ऊपर कायस्थ मतदाता भी चुनाव की दिशा तय करेंगे।
कायस्थ वोट भी चुनावी खेल करने का माद्दा रखते हैं।
  • अपनों की बेरुखी पड़ सकती है भारी
     इस तमाम विश्लेषण में यह बात महत्वपूर्ण है कि भले ही योगी की फैन फॉलोइंग देश प्रदेश में बढ़ी हो मगर गोरखपुर आसपास के अधिकांश भाजपा नेताओं ,पूर्व व वर्तमान सांसद विधायकों में मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी के व्यव्हार से कहीं ना कहीं पीड़ा है कि उन्हें सम्मान नहीं मिला ।यह पीड़ा भले ही सार्वजनिक रूप से ना जतायी गयी हो मगर यदि यह पीड़ा ईवीएम तक पहुंची तो जरूर योगी की राह कठिन हो सकती है। यह बात सभी जानते हैं कि योगीराज में सौ से अधिक विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे। भाजपा के ओबीसी चेहरे और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से उनके सम्बन्ध जगजाहिर हैं। अधिकांश मंत्रियो, विधायक और संगठन के नेताओ की यह शिकायत रही की मुख्यमंत्री और अधिकारी उनकी सुनते ही नहीं हैं। ऐसे में साथ में लगे लोग उनके कितने साथ हैं यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे।यहाँ यह बात भी दीगर है कि भाजपाई ये तो चाहते हैं कि भाजपा जीते पर बहुतों की दबी इच्छा है कि योगी हार जायें जिससे क्षेत्र और पार्टी में उनका सम्मान और कद बना रहे।
  • हिन्दू युवा वाहिनी की परीक्षा

 योगी के एक इशारे पर मर मिटने वाले और उनकी राजनीती को करीब से जानने वाले हिन्दू युवा वाहिनी के पूर्व अध्यक्ष सुनील सिंह अपने साथियों और समर्थकों सहित समाजवादी हो चुके है।योगी की युवा वाहिनी में कितना दम खम बचा है इसकी भी परीक्षा हैं ये चुनाव।मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी के इस्तीफे के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा की हार योगी की एक बार किरकिरी करवा चुकी है।
यूपी के विकास के दावे के बीच क्या योगी तोड़ पायेंगे 22 की सत्ता का तिलस्म
योगी के यूपी को नंबर 1 बनाने और विकास के मुद्दे में कितनी जान है वह इसी बात से जाहिर हो जाती है कि बीजेपी विकास के मुद्दे से हटाकर चुनाव को घुमा-फिरा कर हिन्दू-मुस्लिम पिच पर लाने की हर संभव कोशिश कर रही है।विकास के मामले में योगी सरकार पश्चिम बंगाल के फ्लाईओवर ,अमेरिका की फैक्ट्री , चीन के हवाई अड्डे , आंध्र प्रदेश तेलंगाना बॉर्डर के बाँध की तस्वीरें लगाकर पहले ही अपनी खूब फजीहत करवा चुकी है। बेरोजगारी, पेपर लीक , महंगाई ,किसान आंदोलन, बलात्कार की घटनाएं ,अफसरराज आदि ढेरों चुनौतियों का योगी को चुनाव में जवाब देना होगा ।कोरोना काल की त्रासदी में मचे हाहाकार के दर्द का असर भी अभी देखना बाकी है।
ऊपर से कुम्भ मेले में कैग रिपोर्ट में वर्णित भ्रष्टाचार और राम मंदिर ट्रस्ट में जमीन खरीद घोटाले का किस्से  योगी की परेशानी कितनी बढ़ाएंगे -घटाएंगे ,यह भी देखना दिलचस्प होगा।
2022 के चुनावी चक्रव्यूह में अभिमन्यु ना बन जायें योगी
              
 ऐसे में 2022 के राजनैतिक और चुनावी तिलस्म को तोड़कर विजेता के रूप में योगी को चमत्कार करना ही होगा वरना 2022 का चुनावी चक्रव्यूह कहीं उनको राजनैतिक अभिमन्यु ना बना दे।